विक्रम मिश्र, लखनऊ. उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनाव की तारीखों का ऐलान अभी तक नहीं हुआ है. लेकिन सियासी हलचल ऐसी है मानों कल ही चुनाव होने वाले हो. हालांकि समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में आई कांग्रेस को इस उपचुनाव से अपने संगठन की खामियों का अंदाज लग जाएगा. जबकि लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन से उत्साहित समाजवादी पार्टी को 27 के चुनाव में समीकरण की समझ हो जाएगी. ऐसे में भाजपा भी किसी पार्टी को वॉकओवर देने के पक्ष में नहीं दिख रही है. यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ लगातार दौरे कर रोजगार मेलो में नियुक्ति पत्र बांटने के साथ स्थानीय नेताओं समेत संगठन की पेंच को दुरुस्त करने में जुटे हुए हैं.
इसी कड़ी में सूबे के मुखिया सीएम योगी 2 सितम्बर को संगठन के लोगों में जोश भरने के लिए मुरादाबाद जाएंगे. हालांकि मुरादाबाद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी का गृह जनपद है. इसलिए कुंदरकी उपचुनाव पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का भी सवाल है. लिहाजा किसी भी तरह की कोई कमी भाजपा इस सीट पर छोड़ने को तैयार नहीं है. मुरादाबाद जिले की कुंदरकी विधानसभा सीट पर उपचुनाव के लिए भाजपा नेताओं ने अपनी दावेदारी को मजबूत करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दो सितंबर को मुरादाबाद के आर्यभट्ट इंटरनेशनल स्कूल में युवाओं को नियुक्तिपत्र बाटेंगे साथ ही जनसभा को भी संबोधित करेंगे. पार्टी के पदाधिकारियों के साथ बैठक कर सीट के समीकरण को समझेंगे.
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मुरादाबाद की जातीय समीकरण को देखे तो इस सीट पर राष्ट्रीय लोकदल में आस्था रखने वालों की संख्या भरपूर है. यही कारण है कि भाजपा इस सीट को RLD के झोली में दे सकती है. पूर्व में रामपुर जिले के अंतर्गत स्वार विधानसभा सीट पर उपचुनाव में किया गया प्रयोग मुरादाबाद में भी हो सकता है. स्वार सीट भाजपा ने अपने सहयोगी अपना दल को दे दी थी जहां मुस्लिम प्रत्याशी के मैदान में उतरने से जीत मिली थी.
कुंदरकी का रहस्य सिर्फ एक बार ही लहराया था भगवा
कुंदरकी विधानसभा की सीट 1967 में हुए परिसीमन में फलक पर आई थी. इसके बाद 15 बार विधानसभा चुनाव हुए. अभी तक के राजनीतिक इतिहास में भाजपा के प्रत्याशी चंद्र विजय सिंह ने सिर्फ एक बार 1993 में जीत हासिल की थी. इसके बाद कुंदरकी विधानसभा की सीट पर सपा और बसपा का ही कब्जा रहा है. कुंदरकी सीट पर ज्यादातर मुस्लिम प्रत्याशी ही जीतते रहे हैं.
कुंदरकी सीट का जातीय समीकरण
यहां 65 फीसदी मुस्लिम और 35 फीसदी हिंदू वोटर हैं. जिसपर की भाजपा का संगठन कभी स्थायी समाधान नहीं दे पाया है. 2022 के विधानसभा चुनाव में कुंदरकी सीट पर सपा के जियाउर रहमान चुनाव लड़े थे. उनके खिलाफ बीजेपी ने कमल कुमार को लड़ाया था. सपा यह सीट 43,162 वोटों से जीत गए थे. इससे पहले बीजेपी ने 2017 के चुनाव में रामवीर सिंह को टिकट दिया था, लेकिन वो भी जीत नहीं सके. इसके पीछे कुंदरकी सीट का सियासी समीकरण है. 65 फीसदी मुस्लिम और 35 फीसदी के करीब हिंदू वोटर हैं.
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कुंदरकी सीट पर बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम वोटों की एकजुटता रही है. बिना मुस्लिम वोटों में सेंधमारी के बीजेपी के लिए यह सीट जीतना मुश्किल है यहां पर मुस्लिम समुदाय में सबसे बड़ा वोट बैंक तुर्कों का है. उसके बाद दूसरे नंबर पर मुस्लिम राजपूतों का है.
बीजेपी कुंदरकी लोकसभा सीट पर सियासी प्रयोग के तौर पर बासित अली पर दांव खेलती है तो यूपी में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले पार्टी के पहले नेता होंगे. बासित मुस्लिम राजपूत समुदाय से आते हैं. माना जा रहा है कि मुस्लिम राजपूत वोटों को अगर साधने में बासित अली कामयाब रहते हैं तो हिंदू वोटर एकजुट रहने पर यहां का सपा का सियासी खेल बिगाड़ जाएगा. कुंदरकी सीट पर ठाकुर, सैनी और दलित वोटर हैं.
इसके अलावा बीजेपी अगर कुंदरकी में मुस्लिम उम्मीदवार उतारती है तो इसके जरिए भविष्य में मुरादाबाद, रामपुर और संभल जिलों को सियासी संदेश देने में भी सफल रह सकती है. मुस्लिम तुर्क करीब 70 हजार हैं तो मुस्लिम राजपूत 40 हजार. ऐसे में बीजेपी किसी मुस्लिम राजपूत को उतारकर सपा के सियासी समीकरण को बिगाड़ने का दांव चल सकती है.
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चौसर पर मोहरे साध रही भाजपा
भाजपा ने कुंदरकी विधानसभा के लिए पार्टी के नेता रामवीर सिंह को दो बार चुनाव लड़ाया. उन्होंने दोनों बार काफी प्रयास किया, लेकिन चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हो सके. जियाउर्रहमान के संभल से सांसद बनने के बाद यह सीट खाली हुई है. यह सीट तुर्कों का गढ़ कही जाती है. 2022 में सपा से बगावत करके बसपा का दामन थामने वाले हाजी रिजवान कुंदरकी से चार बार विधायक रहे हैं. हाजी रिजवान सपा में फिर वापस आ गए हैं. ऐसे मे भारतीय जनता पार्टी के लिए ये सीट अभेद किले जैसी ही दिखती है. हालांकि RLD और भाजपा में गठबंधन के बाद से सियासी समीकरण में तब्दीली तो देखने को मिल रही है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी इसी क्षेत्र से आते है. जबकि उनके ही कार्यकाल में हुए लोकसभा चुनाव का रिपोर्टकार्ड बहुत बेहतर नहीं था. ऐसे में भूपेंद्र चौधरी की भी साख दांव पर लगी हुई है.
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